ब्यूरो रिपोर्ट
सूरजपुर, आंचलिक न्यूज। छत्तीसगढ़ का बीजापुर जिला नक्सल गतिविधियों के लिए कुख्यात रहा है, जहां हर दिन जान हथेली पर रखकर तैनात जवान हमारी सुरक्षा की गारंटी बनते हैं। लेकिन जब वही जवान अचानक लापता हो जाए, तो उसका परिवार—उसकी पत्नी, उसके बच्चे, उसका घर—बिना चेतावनी के युद्धभूमि में अकेला रह जाता है।
ऐसा ही दर्द झेल रही हैं सूरजपुर जिले के प्रेमनगर की दीपा सिंह। उनके पति, सशस्त्र बल की 13वीं बटालियन के आरक्षक मनमोहन सिंह, 11 जनवरी 2025 से रहस्यमय परिस्थितियों में गायब हैं। तीन महीने बीत चुके हैं, लेकिन न तो कोई सुराग मिला है, न ही कोई सच्चाई सामने आई है।
“मैं ठीक हूं, चिंता मत करना”—और फिर सन्नाटा
27 दिसंबर 2024 को छुट्टी से लौटे मनमोहन सिंह ने 11 जनवरी की सुबह अपनी पत्नी से आखिरी बार बात की थी। उस फोन कॉल में उन्होंने बस इतना कहा था—“मैं ठीक हूं, चिंता मत करना।”
और फिर... फोन बंद। आवाज खामोश। जिंदगी ठहर गई।
तारुड़ कैंप के अधिकारी कहते हैं कि मनमोहन मानसिक रूप से अस्थिर थे और कैंप की फेंसिंग पार कर भाग गए। लेकिन दीपा का सीधा सवाल है—"अगर वे मानसिक रूप से बीमार थे, तो क्या उन्हें नक्सल क्षेत्र में मोर्चे पर तैनात किया जाना चाहिए था?"
कैम्प का बंद सीसीटीवी: एक हादसा या छुपाया गया सच?
जिस दिन मनमोहन लापता हुए, उसी दिन तारुड़ कैंप का सीसीटीवी बंद था। क्या यह महज संयोग है?
दीपा इस पर सवाल उठाती हैं—“अगर मेरे पति भागे, तो कुछ तो फुटेज होता। क्या कोई उन्हें बाहर ले गया? या फिर कुछ और...?”
एक सुरक्षाकर्मी की पत्नी का यह डर, यह संदेह, यह सवाल... हर उस नागरिक को झकझोर देता है जो वर्दी की इज्जत करता है।
एक परिवार, जो हर दिन बिखर रहा है
दीपा अकेली नहीं हैं—उनके साथ हैं उनके दो मासूम बच्चे, जिनकी उम्र 10 और 8 साल है। उनका हर दिन एक ही सवाल होता है—“पापा कब आएंगे?”
मनमोहन की बूढ़ी मां कैंसर से जूझ रही हैं। महंगी दवाइयों का इंतजाम अब दीपा अकेले कैसे करें? मनमोहन ही एकमात्र कमाने वाले थे। खेत से जितना मिल जाए, उससे घर नहीं चलता। तनख्वाह अब रुक गई है, उम्मीदें भी।
राजधानी से गांव तक की दौड़, मगर सिर्फ आश्वासन
दीपा ने सूरजपुर से लेकर रायपुर तक, हर अफसर, हर नेता, हर विभाग का दरवाजा खटखटाया। बीजापुर एसपी से लेकर गृह विभाग तक पत्र भेजे गए।
सिर्फ एक जवाब मिला—“जांच जारी है।”
क्या एक जवान की तलाश की कीमत बस इतनी है?
सिर्फ दीपा की नहीं, हर सैनिक की कहानी
मनमोहन सिंह की कहानी अकेली नहीं। यह हर उस परिवार की दास्तान है, जिसने अपने बेटे, पति या पिता को देश की सेवा में भेजा है।
आज दीपा की लड़ाई सिर्फ अपने पति के लिए नहीं, बल्कि उस व्यवस्था के खिलाफ है जो वर्दी की कुर्बानी को आंकड़ों में बदल देती है।
एक पुकार—जो सिर्फ अपने पति के लिए नहीं, न्याय के लिए है
दीपा कहती हैं—“अगर मेरे पति सही हैं, तो उन्हें वापस लाइए। अगर कुछ हो गया है, तो सच बताइए। हमें अनिश्चितता के अंधेरे में क्यों जीने पर मजबूर किया जा रहा है?”
प्रशासन और समाज से सवाल
- सीसीटीवी क्यों बंद था?
- मानसिक अस्थिरता का प्रमाण कहां है?
- नक्सल क्षेत्र में सुरक्षा जांच इतनी ढीली क्यों है?
- क्या परिवार को जानकारी देने की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती?
अब समय है... दीपा की आवाज़ को बुलंद करने का
यह सिर्फ एक महिला की गुहार नहीं, यह एक सैनिक की पत्नी का न्याय की मांग है। एक मां, एक बहू और एक नागरिक की उम्मीद है।
क्या हम इसे अनसुना करेंगे?
या फिर, एक स्वर बनकर दीपा की आवाज को देश तक पहुंचाएंगे?
आंचलिक न्यूज आपसे अपील करता है—इस मुद्दे को साझा करें, आवाज़ उठाएं और उस जवान को खोज निकालने में प्रशासन को मजबूर करें, जिसने हमारे लिए सब कुछ दांव पर लगाया।